भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

और श्राप है तुम्हें मगर तब तक नहीं मिलेगा / वंदना गुप्ता

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

ढूँढ रहे हो तुम मुझे शब्दकोशों में
निकाल रहे हो मेरे विभिन्न अर्थ
कर रहे हो मुझे मुझसे विभक्त
बना रहे हो मेरे नए उपनिषद
कर रहे हो मेरी नयी-नयी व्याख्याएं
मगर फिर भी नहीं पकड़ पाते हो पूरा सच
बताओ तो ज़रा
क्या- क्या नहीं कर डाला तुमने
किस-किस धर्मग्रन्थ को नहीं खंगाल डाला
खजुराहो की भित्तियों में ना उकेर डाला
अजंता अलोरा के पटल पर फैला मेरा
विशाल आलोक तुम्हारी ही तो देन है
कामसूत्र की नायिका के रेशे- रेशे में
मेरे व्यक्तित्व के खगोलीय व्यास
अनंत पिंड कई-कई तारामंडल
क्या कुछ नहीं खोजा तुमने
पूरा ब्रह्माण्ड दर्शन किया तुमने
पर फिर भी ना तुम्हारी कुत्सितता गयी
फिर भी अधूरी रही तुम्हारी खोज
और तुम उसी की चाह(?) में
खोजते रहे उसके अंगों में अपनी दानवता
सिर्फ दो अंगों के सिवा ना तुम्हें कुछ दिखा
और गुजर गए अनंतकाल
तुम्हारा अनंत भ्रमण
पर हाथ ना कुछ लगा
करते रहे तुम मर्यादाओं का बलात्कार
सरे आम, हर चौराहे पर
फिर भी ना तुम्हारा पौरुष तुष्ट हुआ
जानते हो क्यों?
क्यूँकि तुमने सिर्फ बाह्य अंगों को ही
स्त्री के दुर्लभतम अंग समझा
और गूंथते रहे तुम उसी में
अपनी वासना के ज्वारों को
और फिर भी ना पूरी हुई तुम्हारी
हवस की झुलसी चिंगारियां

और श्राप है तुम्हें

नहीं मिलेगा तुम्हें कभी वरदान
नहीं खोज पाओगे तुम उसका ब्रह्माण्ड
कभी नहीं पाओगे चैन-ओ-आराम
यूँ ही भटकोगे करोगे बलात्कार
करोगे अत्याचार
ना केवल उस पर
खुद पर भी
अपने से भी मुँह चुराते रहोगे
पर नहीं मिलेगा तुम्हें यथोचित आकार

तब तक जब तक
नहीं उतरोगे तुम उसके
स्त्रीत्व की परीक्षा पर खरे
नहीं भेदोगे जब तक तुम
उसके मन के कोने
जब तक नहीं बनोगे अर्जुन
और नहीं साधोगे निशाना
मछली की आँख पर
तब तक नहीं मिलेगी तुम्हें भी
कोई धर्मोचित मर्यादा
बेशक मिलता रहे अर्धविराम
मगर तब तक
नहीं मिलेगा तुम्हें पूर्ण विराम