भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
कंटकों के मध्य अब चलने लगे हैं / रंजना वर्मा
Kavita Kosh से
कंटकों के माध्य अब चलने लगे हैं।
फिर अभावों की तले पलने लगे हैं॥
थे छला करते सदा जो दोस्तों को
क्या हुआ खुद को अगर छलने लगे हैं॥
जिंदगी का अर्थ क्या है कौन जाने
हम मगर हिम खण्ड से गलने लगे हैं॥
थी दगाबाजी सदा से धर्म जिनका
खड़े खाली हाथ वह मलने लगे हैं॥
दूसरों का ले सहारा थे सरकते
आज अपने पाँव हम चलने लगे हैं॥
जाग उट्ठे आज हैं भ्रम स्वप्न से हम
क्रांति की बनकर शिखा जलने लगे हैं॥
कौन रोकेगा हमारा रास्ता अब
विघ्न के पर्वत स्वयं टलने लगे हैं॥