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कंस के बदले हंस / द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी

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बिना बुलाए ही आया हूँ।

सोचा था मैंने न कभी यह
भेजोगे मुझको न बुलवा,
पता नहीं क्यों किया बन्द वह
तुमने बहता हुआ कुलावा;
सुना-तुम्हारा राजतिलक है;
उसी समय चल पड़ा कुटी से
लगे पूछने लोग बहुत,पर
बिना बताये ही आया हूँ।1।

आशा थी तुमने दी होंगी
भुला बात वे नए दिनों की,
ऊँचे शिखरों पर चढ़ होतीं
बातें शिखरी सम्मिलनों की;
शहंशाह तुम मुझसे ऊँचे
पर फकीर मैं तुमसे ऊँचा
इसीलिए सिर शहंशाह को
बिना झुकाए ही आया हूँ।2।

राजवंश में बहुत बढ़ रही
दुर्योधनी अनैतिकता है;
दुःशासनी हाथ में आई
मातृभूमि की नैतिकता है;
कंसों के बदले हंसों की
हमको पंक्ति बिठानी होगी,
किंतु अभी हनुमंती ताकत
बिना जगाए ही आया हूँ।3।

सोचा - तुमसे बातें कर लूँ
धर्म-क्षेत्र की, कुरुक्षेत्र की,
सिर्फ देखते अपनों को उन
धृतराष्ट्रों के बन्द नेत्र की;
जन-जन अर्जुन पर उसका मन
पड़ा आज भ्रम में, संशय में,
उसे काट, गांडीव हाथ में
बिना दिलाए ही आया हूँ।4।

धर्मक्षेत्र में, कुरुक्षेत्र में
दोनों को मिल लड़ना होगा,
व्यक्ति-धर्म से बड़ा समष्टि-
धर्म, यह मंत्र पकड़ना होगा;
धर्म राज्य से कभी न ऊपर
लेकिन होना धर्म-राज है,
इस जागृति की ज्योति अभी मैं
बिना जलाये ही आया हूँ।5।

जाता हूँ बस, याद करोगे
तो फिर कभी चला आऊँगा,
कृष्ण-सुदामा के से बाला-
पन को नहीं भुला पाऊँगा।
अगर भुला देता तो केसे
बिना बुलाए ही आ जाता;
भेंट-रूप तंदुल अमूल्य ये
बिना छिपाए ही लाया हूँ।6।

16.4.85