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कजली / 43 / प्रेमघन

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गवैयों की लय

ज्यों वर्षा ऋतु आई, सरस सुहाई, त्यों छबि छाई रामा।
हरि हरि तेरे तन पर जानी, जोति जवानी, रे हरी॥
जोबन उभरत आवैं, ज्यों नद उमड़त घुमड़त धावैं रामा।
हरि हरि टूटत ज्यों करार, चोली दरकानी, रे हरी॥
ज्यों कारे घन घेरे, त्यों कजरारे नैना तेरे, रामा।
हरि हरि बरसत रस हिय रसिक भूमि हरियानी, रे हरी॥
रसिक प्रेमघन प्रेमीजन, चातक बनाय ललचाये रामा।
हरि हरि हँसत मनहुँ चंचल चपला चमकानी, रे हरी॥78॥

॥दूसरी॥

 (निज मंगल बिंदु से)

नन्दलाल गोपाल, कंस के काल, दीन हितकारी रामा।
हरि हरि भज मेरे मन, मनमोहन बनवारी रे हरी॥
राधाबर सुन्दर नट नागर, मंगल करन मुरारी रामा।
हरि हरि मधुसूदन माधव बृज कुंज बिहारी रे हरी॥
जग जीवन गोबिंद गुनाकर, केशव अधम उधारी रामा।
हरि हरि रसिक राज कर गिरि गोबर्धन धारी रे हरी॥
काली मथन कृष्ण कालिन्दी के तट गोधन चारी रामा।
हरि हरि सुखद प्रेमघन सदा हरन भय भारी रे हरी॥79॥