कजली / 63 / प्रेमघन
सांवलिया
सामान्य लय
"कवने घाटे भरल्यू गगरिया रे साँवलिया" की लय
धनि विन्ध्यांचल धानी रे साँवलिया॥
जलधर नवल नील सोभा तन चित चातक ललचानी रे॥
भादवँ बदी दुतीया गोकुल नन्दभवन प्रगटानी रे साँवलिया॥
तू जग जननि जोगमाया जसुदा दुहिता कहलानी रे साँवलिया॥
बदलि कृष्ण वसुदेव तोहि लै आए ब्रज रजधानी रे साँवलिया॥
कृष्ण अष्टमी कीनिसि गोकुल सों मथुरा मैं आनी रे साँवलिया॥
देवि देवकी गोद बिराजत चिघरि-चिघरि चिल्लानी रे साँवलिया॥
रोदन मिसि जनु कंसहि टेरति देवकि बन्दि छुड़ानी रे॥
सुनि सठ दौरि धाय तहँ पहुँच्यो डरपत हिय अभिमानी रे।
पटकन चह्यो उठाय तोहि घरि बल करि अतिसय तानी॥
चमकि चली चपला-सी छुटि तब तू मरोरि खलपानी रे।
पहुँचि गगन पर बिहँसत बोली कंस विध्वंसन बानी रे॥
आय बसी विन्ध्याचल 'देवी कान्ति' अमल छवि छानी।
कृष्ण बहिन कृष्णा, काली, स्यामा, सुख सम्पति दानी रे॥
विजया, जया, जयंती, दुर्गा, अष्टभुजा जग जानी रे।
आदि भक्ति अवतार नाम इन कहि पूज्यो तुहिं ज्ञानी रे॥
भक्तन के भय हरत देत फल चारौ सहज सयानी रे॥
बरसहु कृपा प्रेमघन पैं नित निज जन जानि भवानी रे॥
॥दूसरी॥
काजर-सी कजरारी देवि कजरिया॥
कारे भादवँ की निसि जाई करि बृज लोग सुखारी देवि।।
कारे कान्हर की भगिनी तू जो सब जग हितकारी देवि।।
कंस नकारे कारे हिय मैं उपजावनि भय भारी देवि कजरिया॥
कारे विन्ध्याचल की वासिनि दायिनि जन फल चारी देवि कजरिया।
काली ह्वै कारे महिषासुर अधमहिं सहज सँहारी देवि कजरिया॥
कारे असुर अनेकन मारे सुम्भ निसुम्भ पछारी देवि कजरिया॥
पाहि प्रेमघन जानि भक्त निज कारी अलकन वारी देवि कजरिया॥110॥