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कजली / 7 / प्रेमघन

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॥नवीन संशोधन॥

आये सावन, सोक नसावन, गावन लागे री बनमोर॥
घहरि-घहरि घन बरसावन, छबि छहरि-छहरि छहरावन।
चातक चित ललचावन चहुँ ओरन चपला चमकावन॥
संजोगिन सुख सरसावन, बिरही बनिता बिलखावन।
अधिक बढ़ावन प्रेम, प्रेमघन पावस परम सुहावन॥17॥