भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
कजली / 7 / प्रेमघन
Kavita Kosh से
॥नवीन संशोधन॥
आये सावन, सोक नसावन, गावन लागे री बनमोर॥
घहरि-घहरि घन बरसावन, छबि छहरि-छहरि छहरावन।
चातक चित ललचावन चहुँ ओरन चपला चमकावन॥
संजोगिन सुख सरसावन, बिरही बनिता बिलखावन।
अधिक बढ़ावन प्रेम, प्रेमघन पावस परम सुहावन॥17॥