भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

कबै हरि, कृपा करिहौ सुरति मेरी / गदाधर भट्ट

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

कबै हरि, कृपा करिहौ सुरति मेरी।
और न कोऊ काटनको मोह बेरी॥१॥

काम लोभ आदि ये निरदय अहेरी।
मिलिकै मन मति मृगी चहूँधा घेरी॥२॥

रोपी आइ पास-पासि दुरासा केरी।
देत वाहीमें फिरि फिरि फेरी॥३॥

परी कुपथ कंटक आपदा घनेरी।
नैक ही न पावति भजि भजन सेरी॥४॥

दंभके आरंभ ही सतसंगति डेरी।
करै क्यों गदाधर बिनु करुना तेरी॥५॥