भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

कभी-कभी उदास होकर भी बहलाते हैं / विजेन्द्र

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

कभी-कभी उदास होकर भी बहलाते हैं
हम सब मन अपना । घोर अकेले होते हैं
समूह में भी । लोग व्यर्थ ही निजता खोते हैं
अँध-अनुगामी बन । दुख के क्षण दहलाते हैं

हम सबको । एक तरह से ही आते हैं संकट
सब पर । ग़रीब दुहरा-तिहरा होता है । दल
बल से टकराते हैं धनिकों के रथ, निर्दल
रह जाते हैं ख़ाक छानते, उरझे हैं- झंझट

में कुछ सोच न पाते । रह जाती है मन की-
मन में ही टीस घनी । उठती है फिर तरंग
साहस की... ग़म खाकर पाते हैं- वही अभंग
धारा जल की आगे तक । उड़ें धज्जियाँ तन की

चाहे- केतन पहराते हैं उनके ही
जो अडिग रहे हैं- धरती पर हैं तिनके भी।