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कम पड़ रहीं बारूदें / योगेंद्र कृष्णा
Kavita Kosh से
आसान नहीं था
शवों को गिनना
मुकम्मल शवों को
ढोया जा रहा था
पर जिनके चिथड़े उड़ चुके थे
वे मरने के बाद भी
मृतकों में शुमार नहीं थे
किसी हवाई जहाज दुर्घटना
या महामारी ने
नहीं लीं उनकी जानें
नहीं मरे वे भूख से
मारे गए क्योंकि
सहमे डरे नहीं थे वे
वे नंगे पांव नंगे हाथ
लड़ रहे थे
अपने समय के
सबसे बड़ झूठ से
शवों की गिनती जरूरी थी
कि समय रहते
पता लगाया जा सके
कितने लोगों ने
झूठ के विरोध में
कितने सच बोये
कितने कंधों ने
कितने शव ढोये
ताकि वे जान सकें
कि कल और कितनी
बारूदों की जरूरत
उन्हें पड़ सकती है
वे माहिर थे
आंकड़ों के इस खेल में
बड़े हिसाब से लगाते थे
बारूदी सुरंग
इसलिए कि
पथरीले अनगढ़ सच की तुलना में
बहुत कम थीं
बारूदें इस प्रदेश में...