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करूँ शिकवा न क्यूँ चर्ख़-ए-कुहन से / रजब अली बेग 'सुरूर'

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करूँ शिकवा न क्यूँ चर्ख़-ए-कुहन से
कि फ़ुर्क़त डाली तुझ से गुल-बदन से

तिरी फ़ुर्क़त का ये सदमा पड़ा यार
ज़बाँ ना-आश्ना हो गई सुख़न से

दम-ए-तकफ़ीन भी गर यार आवे
तो निकलें हाथ बाहर ये कफ़न से

खिला है तख़्ता-ए-लाला-जिगर में
हमें क्या काम अब सैर-ए-चमन से

न पहुँचा गोश तक इक तेरे हैहात
हज़ारों नाला निकला इस दहन से

दिमाग़-ए-ज़ाँ में है ये बू-ए-काकुल
कि नफ़रत हो गई मुश्क-ए-ख़ुतन से

जिगर पर लाख तीशे ग़म के नित हैं
रही निस्बत हमें क्या कोह-कन से

‘सुरूर’ आताहै जब वो याद-दिलबर
तो जाँ बस मेरी हो जाती है सन से