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कलम घिसे और दवात सुकज्या हरफ लिखणियां थक ले / धनपत सिंह

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कलम घिसे और दवात सुकज्या हरफ लिखणियां थक ले
रै मेरी इसी पढ़ाई नैं कौणा लिखणियां लिख ले

इतणै भूक्खा मरणा हो इतणै वा झाल मिलै ना
गुमसुम रहैगा बंदा इतणै ख्याल में ख्याल मिलै ना
जब तक सागर ताल मिलै ना, बता हंस कड़े तैं छिक ले

इश्क बिमारी हो खोटी मरणे म्हं कसर करै ना
इसा बहम का नाग बताया लड़ज्या वो निसार करै ना
दवा, इंजैक्शन असर करै ना जब गुप्त गुमड़ा पक ले

चोर, जार, बदमाश, ऊत मनैं दुनिया कहै लुंगाड़ा
जीवै ना मरै रहै तड़फता जिकै लाग्गै नैन दुगाड़ा
बहम का बरतन इसा उघाड़ा, कौण ढकणियां ढक ले

एक कातिल एक कतल करावै दोनों म्हं धर्म करकै
‘धनपत सिंह’ कहे जा साच्ची, साच्ची म्हं शर्म करकै
कर्म के आग्गै भरम करकै चाहे जमाना बक ले