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कल्प-विकल्प : दो / इंदुशेखर तत्पुरुष

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धरती को खंगाल कर
सागर को मथ देने वाले
आकाश का चप्पा-चप्पा छानकर
मन को परत-दर-परत उघाड़ कर
कण के करोड़वें हिस्से तक को
उखाड़ लेने वाले
तुम्हारा कोई अता-पता न दे सके
क्या मान लूं इसे
तुम्हारी अनुपस्थिति का साक्ष्य?
तब क्या सबूत मानूं फिर
दिक्काल से परे-परात्पर होने का?
तुम, न समा पाये किताबों की चौखट में
न मापे जा सके वैज्ञानिकों के फीते से
न अंट पाये किसी झंडे या डंडे में
न फंसा पाये तुमको दार्शनिकों के तर्कजाल
और वाग्जाल कवियों के
हे प्रभु! तुम्हारी अज्ञेयता को सिद्ध करते हैं।
चलो, मान लिया-अज्ञेयता
अस्तित्व का प्रमाण नहीं हर्गिज़
तो क्या मान लूं
अनस्तित्व का प्रमाण इसको ?
हे भगवान ! यह कैसा तर्क है ?
जो मेरे प्यार करने के अपने अंदाज को
और कविता लिखने के अपने ढंग को
संदिग्ध कर देना चाहता है
जो हर-हाल में रहते अज्ञेय ही।