कविता ही दुख की बोली है / दिनेश कुमार शुक्ल
मुझको तब भी यह लगता था
कविता ही दुख की बोली है
कागज की नावों के जैसे
यद्यपि छोटे-छोटे सुख थे
दुख का भवसागर अपार था
लेकिन थी एक जगह घर में
जो नहीं अभी तक डूबी थी
उस जगह थकी दीवारों के
जीवट की आहट आती थी
उस ठौर कभी झपकी लेने
के लिए समय भी आता था
धरती तो अक्सर आती थी
पानी पीकर सुस्ताने को
जब कभी अकेले में आकर
बादल भी लोट लगाते थे
इतनी ऊँची वो जगह
हमारे घर की यही दुछत्ती थी
जिसमें थे चार झरोखे जो
सीधे आत्मा में खुलते थे
जब अन्धकार में डूब-डूब
सारी दुनिया सो जाती थी
तब इन्ती झरोखों से होकर
पानी की चादर ओढ़-ओढ़
मिट्टी की खुशबू आती थी
पावस की आँखें आकाशी
नीलम की तरह चमकती थीं
फिर उन्हीं झरोखों से होकर
धरती की मज्जा से बोझिल
बैताल-पचीसी के वितान
के टुकड़े उड़ते आते थे,
ताजे अख़बारी कागज की
खुशबू में उलझी उलझी-सी
अद्भुत ध्वनियाँ भी आती थीं
दानाङ् लुमुम्बा होची मिन्ह....
पश्चिम से उठती थी आँधी
पूरब से बादल आते थे
फिर बूँद-बूँद आसव बनकर
यह सब घुलता अन्तर्जल में
यह अजब दुछत्ती थी जिसमें
रहती भाषा की धूप-छाँव
कुछ फटे पुराने कागज थे
कुछ जंग लगी आवाजें थीं
सपनों के थे कुछ बीज वहाँ
जिनमें अंकुर भी आते थे
रहती थी इसी दुछत्ती में
उन दिनों छिपी कविता की लय
जो भाषा को रक्तिम प्रकाश से
कभी-कभी भर देती थी
मुझसे झींगुर से और थकी
दीवारों से कविता की लय
तब आ-आकर टकराती थी
कविता ने ही हमें बताया भेद दुःख का-
इस अपार की भी सीमा है
यह अथाह भी अतल नहीं है
इस अनादि का आदि, अन्त है इस अनन्त का
कहीं अपरिमित अप्रमेय अज्ञेय कुछ नहीं!