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कविता / मरीना स्विताएवा / वरयाम सिंह
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न विद्याएँ, न पुरखे
न ही कोई बाज़,
बिछुड़ती, क़दम बढ़ाती
वह इतनी हम से दूर ।
साँवली पलकों के पीछे —
सुनहली लपटों की आग ।
हर तरह के मौसम देखी बाँहों में
उसने लिया और भुला दिया ।
स्कर्ट बिना उठाए,
खुला पड़ा कूड़े का ढेर,
न भली न बुरी
यों ही, बस, हम से दूर ।
वह रोती नहीं
शिकायत नहीं करती
तोड़ भी दे कोई — वह भी भला
हर तरह के मौसम झेले हाथों से
उसने दिया और भुला दिया ।
भुला दिया — अपने कण्ठ के वैभव
और चीख़ से ...
— रक्षा करना उसकी, ओ ईश्वर,
उसकी जो हमसे है इतनी दूर !
19 नवम्बर 1921
मूल रूसी से अनुवाद : वरयाम सिंह