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कवि नहीं कविता बड़ी हो / देवेन्द्र आर्य

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इस तरह तू लिख
कि लिख के कवि नहीं कविता बड़ी हो

अपने बूते पर खड़ी हो
जो ज़माने से लड़ी हो
ऐसी भाषा
जैसी भाषा भीड़ के पल्ले पड़ी हो

ह से हाथी
ह से हौदा
क़द नहीं क़ीमत का सौदा
अपने खेतों पर लिखा है हमने अमरीकी मसौदा

ऐसी क्या दौलत कि बच्चू प्यार में भी हड़बड़ी हो

धूप में सीझा हो सावन
भूख के आगे पसावन
दूध सा गाढ़ा पसीना
और सपनों का जमावन

हर घड़ी लगती हो जैसे, बस, यही अन्तिम घड़ी हो

लिख कि धरती मुस्कुराए
दुख का सीना चिटक जाए
रक्त में स्नान करने वाला
यादों में नहाए

प्यास के सहरा में जैसे कोई शीतल बावड़ी हो

इस तरह तू लिख कि लिख के कवि नहीं
कविता बड़ी हो