भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

कहने को तो वे हमपे मेहरबान बहुत हैं

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज


कहने को तो वे हमपे मेहरबान बहुत हैं
फिर भी हमारे हाल से अनजान बहुत हैं

क्या किससे पूछिए कि जहां मुँह सिये हों लोग
हैं नाम के ही शहर ये, वीरान बहुत हैं

खामोश पड़े दिल को तड़पना सीखा दिया
हम पर किसी के प्यार के अहसान बहुत हैं

वे भाँप ही लेते हैं निगाहों का हर सवाल
वैसे तो और बातों में नादान बहुत हैं

काँटों का ताज कौन पहनता है यह, गुलाब!
माना कि खेल प्यार के आसान बहुत हैं