कहाँ तूफ़ान आये हैं अभी वे संतरण-वाले!
किनारे घेर बैठे हैं भँवर के आचरण-वाले!
किसी के सामने वे क्यों झुकें, क्यों हाथ फैलायें,
कि सब के सब मिले हों लोभ जिनको संवरण-वाले!
उसे क्यों वक़्त का मारा हुआ इंसाँ कहे कोई,
जिसे रातें मिली स्वप्निल, मिले दिन जागरण-वाले!
दुखी हैं वे हक़ीक़त का अभी से राज़ पा बैठे,
सुखी वे आज भी हैं, सत्य जिनके आवरण-वाले!
किसी की भी सरल बातें उन्हें क्या जीत पायेंगी,
जनम से ही मिले हों कान जिनको आभरण-वाले!
कहीं मंजिल न पीछे छोड़ आये हों क़दम मेरे,
खड़े हैं रास्ता रोके प्रहर ये संस्मरण-वाले!
तुम्हें क्यों संस्मरण-वाले महोत्सव में बुला बैठूँ,
तुम्हारी याद के क़ाबिल प्रहर हैं विस्मरण-वाले!
उमर ‘सिन्दूर’ की खामोशियों में गर्क हो जाती,
क़दम भागे न होते छोड़ कर पथ अनुसरण-वाले!