भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
कहौ सो बिपिन हैं धौं केतिक दूरि।/ तुलसीदास
Kavita Kosh से
(13)
कहौ सो बिपिन है धौं केतिक दूरि |
जहाँ गवन कियो, कुँवर कोसलपति, बूझति सिय पिय पतिहि बिसूरि ||
प्राननाथ परदेस पयादेहि चले सुख सकल तजे तृन तूरि |
करौं बयारि, बिलम्बिय बिटपतर, झारौं हौं चरन-सरोरुह-धूरि ||
तुलसिदास प्रभु प्रियाबचन सुनि नीरजनयन नीर आए पूरि |
कानन कहाँ अबहिं सुनु सुन्दरि, रघुपति फिरि चितए हित भूरि ||