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क़त्ए / अनु जसरोटिया
Kavita Kosh से
बढ़ती जाती है रोज़ महंगाई
मुफलिसों की नहीं है सुनवाई
मौत का इन्तज़ार है अब तो
आज आई कि कल को ये आई
है ग़रीबों की जान मुश्किल में
ख़ौफ़ महंगाई का है हर दिल में
हाथ ख़ाली है पेट भूखा है
मौत भी है खड़ी मुक़ाबिल में
इस क़दर बढ़ गई है मंहगाई
कुल ज़माने की आंख भर आई
हाल अच्छा नहीं ग़रीबों का
फिर भी सरकार को न शर्म आई
आंख अह्ले वतन की पुर नम है
आस भी ज़िन्दगी की अब कम है
तेल महंगा है गैस भी महंगी
ज़िन्दगी का चिराग़ मद्धम है
ख़ाली ख़ाबों से मन को बहलाऊँ
देख महंगाई को मैं घबराऊँ
मन ही मन खुद से बात करती है
क्या करूं अब किधर को मैं जाऊँ