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क़िताबें पढ़ के चार कुछ भी न हासिल होगा / डी. एम. मिश्र
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क़िताबें पढ़ के चार कुछ भी न हासिल होगा
पढ़ा न प्रेम का जो पाठ क्या क़ाबिल होगा
मैंने सपने में भी ऐसा कभी न सोचा था
जिसे मासूम समझता था वो क़ा़तिल होगा
ज़़मीं से फूट के मेरा लहू पुकार करे
डर गया मौत से जो शख़्स वो बुज़दिल होगा
न जाने कितनी किश्तियाँ भँवर में डूब गयीं
किसी-किसी की ही तक़दीर में साहिल होगा
पटक रहा है शीश व्यर्थ में ही पत्थर पर
तेरी फ़रियाद सुनेगा जो रहमदिल होगा