Last modified on 16 नवम्बर 2014, at 22:11

क़िस्मत मुझसे कहीं ख़फ़ा न हो जाए / सूफ़ी सुरेन्द्र चतुर्वेदी

क़िस्मत मुझसे कहीं ख़फा न हो जाए ।
मुझसे मेरा यार जुदा न हो जाए ।

डरता हूँ मैं बारिश के हर मौसम में,
कोई पुराना ज़ख़्म हरा न हो जाए ।

दरवाज़ों पे दिए जला कर बैठा हूँ,
डर ये है नाराज़ हवा न हो जाए ।

यार को दिल में रखता हूँ मैं इसीलिए,
और कहीं कोई उस पे फ़िदा न हो जाए ।

नज़रों में ख़ुद के ही मुझको गिरना पड़े,
भूल से ऐसी कोई ख़ता न हो जाए ।

दुआ क़बूलो तो भी डरना पड़ता है,
कहीं कोई अहसान दुआ न हो जाए ।

सारे ज़ोम मिटा देता है पल भर में,
वर्ना तो इन्सान ख़ुदा न हो जाए ।