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क़ीमती हो न हो सौग़ात से डर लगता है / गोविन्द गुलशन

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क़ीमती हो न हो सौग़ात से डर लगता है
मुझको ग़मख़ेज़ रवायात से डर लगता है

आईना ऎब निकाले है बराबर मुझमें
ख़ुद से मिलना है मुलाक़ात से डर लगता है

जीने-मरने का कोई ख़ौफ़ नहीं था पहले
अब ये आलम है कि हर बात से डर लगता है

डूबने से मैं बचा लेता हूँ सूरज का वुजूद
ख़ुदग़रज हूँ कि मुझे रात से डर लगता है

बूंदा-बांदी से हरज कोई नहीं, हो जाए
तेज़ होती हुई बरसात से डर लगता है