भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

क़ुरआँ किताब है रूख़-ए-जानाँ के सामने / रजब अली बेग 'सुरूर'

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

क़ुरआँ किताब है रूख़-ए-जानाँ के सामने
मुसहफ़ उठा लूँ साहब-ए-क़ुरआँ के सामने

जन्नत है गर्द कूचा-ए-जानाँ के सामने
दोज़ख है सर्द सीना-ए-सोज़ाँ के सामने

सकता अभी हो रूह-ए-सिंकदर को शर्म से
आईना आए गए तिरे हैराँ के सामने

बहर-ए-उम्मीद गर उसे फैलाऊँ सू-ए-यार
दामान-ए-दश्त तंग हो दामाँ के सामने

दस्त-ए-जुनूँ से वो भी न वहशत में बच सका
पर्दा जो कुछ रहा था गिरेबाँ के सामने

मश्शाता हो अज़ीज़-ए-जुलेख़ा अगर वो लाए
इस मेहर-ए-मिस्र को मह-ए-कनआँ के सामने

नादान कह रहे हैं जिसे आफ़ताब-ए-हश्र
ज़र्रा है उस के रू-ए-दरख़्शाँ के सामने

दम बंद उस लतोड़े की जुरअत ने कर दिया
करता है रेज़ बुलबुल-ए-बुस्ताँ के सामने

दीवार सुर्ख़ ख़ून से देखी पता मिला
क़ासिद ठहर गया दर-ए-जानाँ के सामने

कहते हैं रोज़-ए-वस्ल जिसे पस्त हौसला
बे-क़द्र है मिरी शब-ए-हिज्राँ के सामने

तक़रीर दिल जलाती है सुनने से ऐ ‘सुरूर’
आता है कौन मुझ शरर-अफ़शाँ के सामने