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काजल ढल रहे हैं / यतींद्रनाथ राही

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माँगती है साँझ
सूरज की विदाई
घाटियां के नयन
काजल ढल रहे हैं।
पत्थरों को दूध से
धोते रहे तुम
बूँदभर को रह गए बच्चे तरसते
जग रही थी
कब्रगाहों पर दिवाली
दीप कितने बुझ गए
सूखे-सिसकते
छल रहे हो तुम
जगत को, या स्वयं को
आइने ही या तुम्हें ये,
छल रहे हैं
शब्द की जादूगरी का खेल है सब
हर तमाशा
पेट की खातिर यहाँ है
देख ली है यदि नुमाइश
तो चलो अब, एक मेला है
किसी का घर कहाँ है
बज रही है डुगडुगी लो
उस तरफ से
भीड़ के रेले जिधर को
चल रहे हैं।
मुक्त होकर
लड़ रही हैं कुछ जुबानें
ईंट-पत्थर कीचड़ें
कुछ गालियाँ हैं
सिर झुके हैं शर्म से
कुछ देखते हैं उड़ रहे झंडे
कहीं पर तालियाँ हैं
देख लो!
कुछ गर्व से सीना फुलाओ
बीज जो बोए कभी थे
फल रहे हैं