भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

काले बादल / गोपीकृष्ण 'गोपेश'

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

आज घिरे हैं काले बादल,
दूर गगन में, मानव मन में !

लुटा रहा था कौन यहाँ पर
अभी विहंस पथ-पथ पर सोना,
चमक रहा था मणि-माणिक सा
किसके दिल का कोना-कोना !
किसके पूजन — आराधन में,
सूनेपन में — अपनेपन में,
आज घिरे हैं काले बादल,
दूर गगन में, मानव मन में !!

अरमानों से रज के कण-कण,
कहाँ गए, क्या हम-तुम जानें,
अन्धड़ में प्रियतम की छाया
अब कैसे देखें, पहिचानें !
’बून्द गिरी’ दुनिया कहती है
’आग लगी’, मैं कहता, ’तन में’ !
 आज घिरे हैं काले बादल,
दूर गगन में, मानव मन में !!

दुनिया की काली राहों पर
काले बादल आए-छाए,
दूर पन्थ के राही बैठे
पथ पर अपने नयन बिछाए,
अट्टाहस कर नभ हंसता है
मानव के रोदन-क्रन्दन में !
आज घिरे हैं काले बादल,
दूर गगन में, मानव मन में !!