भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

काल हो गया अतिशय शोभन / हनुमानप्रसाद पोद्दार

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

काल हो गया अतिशय शोभन, सर्व शुभ गुणों से सपन्न।
 बिधु रोहिणि गत हु‌ए, ऋतु-ग्रह-तारे सभी सौयतापन्न॥
 हुर्ईं दिशा‌एँ अति प्रसन्न सब, तारे चमक उठे आकाश।
 धरती के सब नगर-ग्राम, व्रज, आकर हु‌ए मंगलावास॥

 नदियाँ थीं सब निर्मल-जल, निशि खिले हृदयों में कमल अपार।
 वृक्ष लदे सुमनों से, पिक-‌अलि करने लगे चहक-गुंजार॥
 सुख-स्पर्श, शुचि, शीतल-मन्द-सुगन्ध बह चली मधुर बयार।
 असुर-विरोधी साधु-मनों में हु‌आ तुरत सुख का संचार॥

 सुर-दुन्दुभियाँ मधुर बज उठीं सहसा भर आनन्द अपार।
 जन्म अजन्मा का सुन, सुर सब बने स्वयं आनन्दाकार॥
 शुचि गन्धर्व-सुकिन्नर गाने लगे, छेड़ अति मधुमय तान।
 करने लगे सिद्ध-चारण सब प्रमुदित मन पावन स्तुति-गान॥

 नाच उठीं निशीथ में विद्याधरी-‌अप्सरा‌एँ सब आज।
 समुद्र सराह रहा धरती का भाग्य परम देवर्षि-समाज॥
 करने लगे सिन्धु मृदु गर्जन, मृदु-मृदु मेघ उठे सब गाज।
 निशि में प्रकट हु‌ए जब अखिलेश्वर, राजा‌ओं के सिरताज॥