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काश! आज पिता होते / मुकेश निर्विकार

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काश! आज पिता होते/तो कितने खुश होते
मेरी तरक्की, मकान-दुकान देखकर/
लग जाते चार-चाँद मेरी समृद्धि में तब
मिल जाता मुझे जीवन का सच्चा प्रतिफल
वृद्ध पिता की संतुष्ट आँखों के प्रतिबिंब में !

काश! आज पिता होते!
क्यों छोड़ते आभावों की पीढ़ा में
अपनी आखरी साँस/आज
क्यों बेकल होता मेरा मन/उनका
समुचित इलाज न करा पाने की बेबसी पर!

काश! आज पिता होते!
बैठे होते मेरी आलीशान बैठक में
(जो उनके रहते नहीं बना सका मैं)
गर्व से मुड्ढे पर/गाँव से लाये अपने हुक्के को गुड़गुड़ाते हुए
कहीं दूर शून्य में खोयी अपनी आँखों से अतीत में कुछ झाँकते हुए नातियों से बतियाते हुए
ऐसे हत्प्रभ गोया उनको इस समृद्ध वर्तमान पर अभी भी पूरा यकीन न हो
कि उनका अतीत अब एक दम झूठा हो चुका है
अब गाँव के ‘सोहना’ साहूकार का उन पर, सचमुच, कुछ भी बकाया नहीं है।

काश आज पिता होते!
मेरे वर्तमान की समृद्धि में
छोड़ पाते अपनी आखरी साँसे
पूरे संतोष से!
क्यूँ बिकल होता उनका चित-
अभावों में हमें छोड़कर जाने की बेबस-वेला में!
काश! आज पिता होते!
तो देख पाते अपनी उजाड़ बगिया में खिलते फूल
चहूँ ओर महकती खुशबू
खुशगवार वसंत....