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काश! आदमी सिर्फ आदमी होता! / मुकेश निर्विकार
Kavita Kosh से
जानवरों से कोई
क्यों नहीं पूछता
जात उनकी?
पंछियों का
क्यूँ नहीं होता
कोई धर्म?
पहनते क्यों नहीं है
कोई संप्रदाय-चिन्ह
पेड़-पौधे
किस मज़हब का
राग अलापती है
बहती नदी?
ये सभी आजाद हैं
इस ताम-झम से
नहीं बाध्य तनिक भी
आदमी की तरह
किसी पंथ, मजहब, धर्म,
संप्रदाय के बाड़े में
कैद रहने के लिए!
अपने सुसंकृत और सभ्य
बनने का दुष्परिणाम
भुगत रहा है आदमी।
काश!
आदमी सिर्फ आदमी होता!
वनमानुष की तरह—
बे-पहचान
सिर्फ आदमज़ाद,
निखालिस एक जीव!