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काशी में महामारी/ तुलसीदास/ पृष्ठ 1
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काशी में महामारी-1
( छंद 169, 170)
(169)
गौरी नाथ, भोरानाथ, भवत भवानीनाथ!
बिस्वनाथनुर फिरी आन कलिकालकी।
संकर-से -नर, गिरिजा-सी नारीं कासीबासी,
बेद कही, सही ससिसेखर कृपालकी।।
छगुख-गनेस तें महसेके पियरे लोग
बिकल बिलोकियत , नगरी बिहालकी।।
पुरी-सुरबेलि केलि काटत किरात कलि,
निठुर निहारिये उघारि डीठि भालकी।।
(170)
लोक-बेदहूँ बिदित बारानसीकी बड़ाई
बासी नर नारि ईस-अंबिका-सरूप है।
कालबध कोतवाल, दंडकारि दंडपानि,
सभसद गनप-से अमित अनूप हैं।।
तहाँऊ कुचालि कलिकालकी कुरीति ,
कैंधौं जानत न मूढ़ इहाँ भूतनाथ भूप हैं।
फलैं फूलैं फैलैं खल, सीदैं साधु पल-पल
खाती दीपमालिका ,ठठाइयत सूप हैं।।