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काशी में महामारी / तुलसीदास/ पृष्ठ 2

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काशी में महामारी-2

 ( छंद 171, 172)

(171)
पंचकोस पुन्यकोस स्वारथ-परमारथको
जनि आपु आपने सुपाय बास दियो है।

नीच नर-नारि न सँभारि सके आदर,
 लहत फल कादर बिचारि जो न कियो है।।

 बारी बारानसी बिनु कहे चक्रपानि चक्र,
मानि हितहानि सो मुरारि मन भियो है।

रोसमें भरोसो एक आसुतोस कहि जात,
बिकल बिलोकि लोक कालकूट पियो है।।

(172)

रचत बिरंचि , हरि पालत, हरत हर,
 तेरे हीं प्रसाद अग-जग-पालिके।

तोहिमें बिकास बिस्व , तोहि में बिलास सब,
तोहिमें समात, मातु भूमिधरबालिके।।

दीजै अवलंब जगदंब! न बिलंब कीजै,
करूनातरंगिनी कृपा-तरंग-मालिके।

रोष महामारी, परितोष महतारी दुनी
देखिये दुखारी, मुनि -मानस-मरालिके।।