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कितनी अन्तर्कथाएं मन में चलती हैं / वाज़दा ख़ान

कितनी अन्तर्कथाएं मन में चलती हैं
बहती हैं नदियों में सदियों में
सदियों तक यहां वहां जाने कहां कहां
कभी कभी तुम्हारे मन तक
एक बार अपनी सम्पूर्ण जिजीविषा के साथ
तुमसे प्रेम करना चाहती हूं
तुम्हारे बनाये पेड़ पौधे आसमान बादल
चिड़ियों से प्रेम किया
तुम्हारे बनाये गये मनुष्यों से प्रेम किया
यहां तक कि अपने अनन्त अधूरेपन से भी
अब तुमसे प्रेम करना चाहती हूं
सम्पूर्ण दीवानगी के साथ
मिली है मुझे विरासत में
माथे पर मेरे हौले से रखना तुम अपना हाथ
तुम्हारे नर्म सुकून स्पर्श से मुंद जाएं आंखें
कि आसुओं की नमी में रौशनी आ जाये
अन्धेरों की जगह
हौले से थपकना मेरा जिस्म मां की तरह
जैसे थपकन मेरे रूह में समा जाये
सदियों से भटकती छटपटाती रूह
एक लम्बी शान्त पुरसकून की नींद सो जाये
तुम उठाना बांहों में मुझे
जैसे लोग च़ढ़ाते हैं फूल
दफ़्न कर देना आराम कब्र में
मिल जाऊंगी तुममें हमेशा के लिये.