भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
कितने पैकर ले गया कितने ही मंज़र ले गया / मेहर गेरा
Kavita Kosh से
कितने पैकर ले गया कितने ही मंज़र ले गया
जाने क्या क्या वक़्त का दरिया बहाकर ले गया
लोग फिर भी घर बना लेते हैं भीगी रेत पर
जानते हैं बस्तियां कितनी समंदर ले गया
दिन को मेरे साथ चल सकता न था जो दो कदम
शब को ख्वाबों में मुझे लम्बे सफ़र पर ले गया
उसने देखे थे कभी इक पेड़ पर पकते समर
साथ अपने एक दिन कितने ही पत्थर ले गया
वो गिरा ही था ज़मीं पर शाख़ से होकर अलग
एक झोंका ज़र्द पत्ते को उड़ा कर ले गया
लुत्फ लहरों से उठाया था बहुत मैंने मगर
साथ लहरों के मुझे इक दिन समंदर ले गया
रुत बदलने तक मुझे रहना पड़ेगा मुंतज़िर
क्या हुआ पत्ते अगर सारे दिसम्बर ले गया।