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किसका आघात हुआ फिर मेरे द्वार / रवीन्द्रनाथ ठाकुर

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के दिल आबार आघात आमार दुयारे !

किसका आघात हुआ फिर मेरे द्वार ।
कौन, कौन इस निशीथ खोज रहा है किसको—
आज बार-बार ।।
बीत गए कितने दिन,
आया था वह अतिथि नवीन,
दिन था वह वासन्ती—
जीवन कर गया मगन
पुलक भरी तन-मन में—
फिर हुआ विलीन ।।
झर-झर-झर झरती बरसात ।
छाया है तिमिर आज रात ।।
अतिथि वह अजाना है
लगते पर बड़े मधुर,
उसके सब गीत-सुर ।।
सोच रहा जाऊँगा मैं उसके साथ—
अनजाने इस असीम अंधकार ।।


मूल बांगला से अनुवाद : प्रयाग शुक्ल

('गीत वितान' में 'प्रेम' के अन्तर्गत 154 वीं गीत-संख्या के रूप में संकलित)