किसी आग का खेल है ये दुनिया
जागता है राख के नीचे 
सुलगती आग का अनुराग
युगों तक जिन्दा बनी रहती 
दहकती आग कण्डों की, 
जल रही हैं साथ 
कण्डों पर थपी जो हाथ की थापें-
आग में 
कृतिकार के ही हाथ 
कृति का दे रहे हैं साथ
खुली आँखों में चराचर की 
अहर्निश जागती है चेतना की आग-
धातु से जल से हृदय से
और आँखों से उतर 
हाथों से होती हुई 
कण्डों में समाती जा रही है 
आग की आभा अनश्वर!
भर रही है रोटियों की गंध 
कण्डे सुलगते हैं 
भस्म होती भूख, 
तापती हैं आग बैठी पुरखिनें 
किस्से सुनाती हैं
और किस्से सुन के 
कुछ-कुछ ऊँघती-सी आग 
फिर से सुगबुगाती है 
राख के नीचे दहकते
रक्तरंजित आत्मा के घाव!
और बाहर उधर खंडहर में कहीं 
कण्डों की बठिया 
इस तरह ठसकी हुई बैठी 
कि जैसे रात का हाथी 
वहाँ पर झूमता हो!
जगह ऊँची और नीची खण्डहर की 
जहाँ कण्डे पाथती है माँ, 
अधगड़े, टूटी हुई ईंटों के टुकड़े 
पाँव में गड़ते अचानक 
याद आता कहीं-कुछ खोया हुआ-सा, 
झाँकते हैं ढूँठ माटी में दबे 
उस ध्वस्त घर की धन्नियों के-
फाड़ कर धरती 
निकलना चाहता शकटार 
खण्डहर जागते हैं!
और कण्डों पर फुदकती रात की चिड़िया 
चलाती चोंच दाना खोजती है 
चूँकि गोबर में छुपे हैं अन्न के दाने 
न जाने बीज कितनी वनस्पतियों के 
अभी लौटे उदर की यात्रा से 
खूब रच-पच कर पके 
गोवंश की जठराग्नि में 
ये पत्तियाँ डण्ठल 
सभी हैं लौटने को व्यग्र 
फिर से जड़ों में अपनी
घूमता है चक्र जीवन का, 
जुड़ रही है श्रृंखला आहार की 
इस छोर से उस छोर तक
और चिड़िया फुदकती है 
बदलते है रूप 
हलचल खूब
कुछ भी थिर नहीं है 
आ रही है बहली हुई सलवट 
न जाने ये कहाँ से 
कहीं कुछ टूटा जहाँ से 
उठ रही है ये दरार 
उलझता विन्यास से विन्यास 
फैलती है लहर के ऊपर लहर 
इस ओर से उस ओर तक
रात की अधखुली आँखों से 
अचानक टपकती है बूँद 
जिसमें भीगता भूखण्ड सारा-
बिलबिला कर अंकुरित हो रही धरती 
लिख रही है दूब का दोहा 
शिखरिणी बाजरे की
और भुजंग-प्रयात जैसी 
सरसराती जा रही है सर्पगंधा 
गा रहे हैं ढाक के पत्ते अभंग 
झूमते है धान जैसे मुक्तछंद
और ज्यामिति के सभी आकार 
पादप-जगत में साकार 
इसके पात वृत्ताकार 
उसकी पत्तियाँ तलवार 
इसकी जड़ों का विस्तार 
उलझा हुआ अपरम्पार 
उसका रूप शंक्वाकार 
इसकी फली में झंकार
इसमें बाँसुरी का राग 
उसके फूल तक में आग-
जिसमें दाल पकती
और रोटी फूलती है 
और कण्डे सुलगते हैं 
तृप्ति का उठता हुआ मीठा धुआँ,
और माँ की आँख से 
फिर टपकता वात्सल्य का अनुराग-
अनुराग के रग रंगी इतनी 
अभिव्यक्ति इसे अब क्या कहिये 
किसी आग का खेल है ये दुनिया 
इस आग की आँच जरा सहिये 
यही फूल में अन्न में गोबर में 
इसमें नित अर्थ नये लहिये 
इसमें ही अथाह प्रवाह भरा 
गहरी यह धार इसे गहिये 
यह भाव की भूमि भदेस भली 
इसे छोड़ के और कहाँ रहिये!