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किसी की चश्म-ए-गुरेज़ाँ में जल बुझे हम लोग / रेहाना रूही

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किसी की चश्म-ए-गुरेज़ाँ में जल बुझे हम लोग
अजब मशक़्क़त-ए-हिज्राँ में जल बुझे हम लोग

हम अपने अक्स को आईना करने वाले थे
पे एक लम्हा-ए-हैराँ में जल बुझे हम लोग

संभाल पाएगा फिर कौन ख़्वाब का वरसा
इसी ख़याल-ए-परेशाँ में जल बुझे हम लोग

जो आँख से नहीं टपके इन आँसुओं के साथ
ख़ुद अपने ख़ेमा-ए-मिज़्गाँ में जल बुझे हम लोग

हमारे ख़ून की क़ीमत पे जो ख़रीदी गई
उसी बहार-ए-गुलिस्ताँ में जल बुझे हम लोग

कहाँ तलक कि उठाते अज़ाब-ए-तन्हाई
अकेले हुजला-ए-वीराँ में जल बुझे हम लोग

सज़ा-ए-मौत से बद-तर है आगही की सज़ा
शुऊर-ए-हर्फ़ के ज़िंदाँ में जल बुझे हम लोग

हमें किसी का बहुत इंतिज़ार था ‘रूही’
सो बने के शम्अ शबिस्ताँ में जल बुझे हम लोग