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कुछ नहीं कर पा रहे तुम / केदारनाथ अग्रवाल

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कुछ नहीं कर पा रहे तुम
करने के काम से उनकी तरह कतरा रहे तुम;
न किए का बोध गर्भ की तरह
असमय गिरा रहे तुम;
गर्व से ढमाढम ढोल खोखला बजा रहे तुम;
दृष्टि में उठे अपनी
दूसरों की दृष्टि में गिरे जा रहे तुम;

कुछ नहीं कर पा रहे तुम
सरेआम एक दूसरे को लतिया रहे तुम;
पार्टी की फटफटिया
फटफटा रहे तुम;
देश को समाजवादी नहीं--
घटिया बना रहे तुम;
जाल पर जाल
फाँसने-फँसाने का
बुनते चले जा रहे तुम;
गर्त में गिरते
आदमी को गिराते--
रसातल में और अधिक
पहुँचाते चले जा रहे तुम।

रचनाकाल: २४-०१-१९७४