भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
कुछ हवा में हैं तल्खियां शायद / ध्रुव गुप्त
Kavita Kosh से
कुछ हवा में हैं तल्खियां शायद
आंधियों में हो अब बयां शायद
लफ़्ज खो आए हैं मानी अपने
बात कह दे ख़मोशियां शायद
कैसी गहरी उदासियां हैं अभी
नींद कुछ दे तसल्लियां शायद
बच्चे उलझे हैं किताबों में अभी
मुंतज़िर होंगी तितलियां शायद
उस जगह हर कोई अकेला है
जिस जगह हैं बुलंदियां शायद
घर में थोड़ी सी आंच बाकी है
आज टूटा है आशियां शायद
ख़त लिखेंगे उन्हें सलीके से
आज कांपेंगी उंगलियां शायद