डर जाते हो तुम लहकते जेठ में
खेतों से गुजरते हुए टिटिहरी की टी-टी सुनकर
ठीक सामने सड़क पर पार करते हुए सियार को देखकर हो जाते हो आशंकित
घूम कर बदल लेते हो राह
देर रात गए कुत्तों की रोने की आवाज
अंदर तक भयभीत करती है तुम्हें
अंधेरे में नदी का पाट लांघते
याद करने लगते हो हनुमान चालीसा के पाठ
ठिठक जाते हो सुनसान में सुनकर
वृक्ष-पातों की खड़खड़ा हटें
छत पर सोते समय
अर्ध रात्रि में निसिचर खग-झुण्डों की
पांखों की तेज आवाज में
खोजने लगते हो चुड़ैलों की ध्वनियाँ
कुछ देर पहले ही तो
जूझ कर लौटा हूँ मैं
हत्यारों की खौफनाक गलियों से
बेधड़क मचलता हुआ
बेहद निडर, बेखरोच, सुरक्षित!