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कुछ होने का नहीं / ज़िन्दगी को मैंने थामा बहुत / पद्मजा शर्मा

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'सबका करते-करते अपना बहुत कुछ बाकी रह गया’
अब यह रोना नहीं रोऊँगी
जो पीछे छूट गया उसके लिए नहीं पछताऊँगी
और नहीं करूँगी प्रतीक्षा
उसके बदलने की, मेरे साथ चलने की
मैं खुद ही बदल जाऊँगी
पहले कदम उठते नहीं थे
जब तक होती नही थी उसकी 'हाँ’
और उसकी अक्सर रहती थी 'ना’
तब मैं आँसू पीती घूमती थी यहाँ-वहाँ
पर अब सोच लिया कि
बिना रोए अकेले आगे बढ़ जाऊँगी
सपने पूरे होने तक चलती जाऊँगी
क्योंकि यह चलने का समय है रुकने का नहीं
खिलखिलाने का समय है गिड़गिड़ाने का नहीं
हँसने का समय है रोने का नहीं
रो चुकी जितना था रोना
हो चुका जो बिगाड़ा था होना
अब कुछ होने का नहीं
जान गई हूँ कि यह
जो मुझे रिझाने को दौड़ रहा है मृग
वह सोने का नहीं
इसलिए अब कुछ होने का नहीं
और जब कुछ होने का ही नहीं, मित्र!
तो किसी से डरें क्यों
और तिल-तिल मरें क्यों?