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कुछ / गोपीकृष्ण 'गोपेश'

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उषा ने सोने की थाली
लाकर मुझको अर्पित कर दी,
सन्ध्या ने तारों की झोली
लाकर मेरे कर में धर दी,
बस, और रूठकर बैठ गई
मेरी स्वप्निल दुनिया पगली !

सरिता ने लहरों के कर से
युग-युग मेरा आह्वान किया,
फूलों ने अपने शूलों से
मेरा सच्चा सम्मान किया,
कुछ आँक न पाया मैं क़ीमत
काँटे रोए, सरिता मचली !

जीवन ने सुख-दुख के कर से
मेरी बाहों को लिया जकड़,
दुख से मेरी हो गई प्रीति,
पा गया भेंट में श्वासें जड़ !
कल लोहित सन्ध्या के उर पर
कुछ राख उड़ी, कुछ चिता जली !