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कुटिल दिक्-काल / दिनेश कुमार शुक्ल

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आँख में
कुछ फाँस जैसी फँस रही है
हो चली है दृष्टि धूमिल

घिर रहा घनघोर सन्नाटा
और रह-रह कर अचानक
कहीं निर्जन में
श्रृगाली हँस रही है

सूर्य के आवर्त से
रास्ता भटककर
छिटककर
पृथ्वी अचानक
सृष्टि की काली भँवर में
धँस रही है

एक कँटीले
मौन के झंखाड़ में
आवाज मेरी फँस रही है

घूमती तिरछी चली आती
कुटिल दिक्-काल की नागिन
समूची सृष्टि को
अब डँस रही है