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केतकी, गुलाब, जुही, चम्पक बन फूले / शैलेन्द्र
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केतकी, गुलाब, जूही, चम्पक बन फूले
ऋतु बसन्त, अपनो कन्त गोरी गरवा लगाए
झुलना में बैठ आज पी के संग झूले
केतकी, गुलाब, जूही, चम्पक बन फूले
गल-गल कुंज-कुंज, गुन-गुन भँवरों की गूंज
राग-रंग अंग-अंग, छेड़त रसिया अनंग
कोयल की पंचम सुन दुनिया दुख भूले
केतकी, गुलाब, जूही, चम्पक बन फूले
मधुर-मधुर थोरी-थोरी, मीठी बतियों से गोरी
चित चुराए हँसत जाए, चोरी कर सिर झुकाए
शीश झुके, चंचल लट गालन को छू ले
केतकी, गुलाब, जूही, चम्पक बन फूले
1955