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कैसा चलन है गर्दिश-ए-लैल-ओ-नहार का / 'मुमताज़' मीरज़ा

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कैसा चलन है गर्दिश-ए-लैल-ओ-नहार का ।
शिकवा हर एक को है ग़म-ए-रोज़गार का ।

टूटी जो आस जल गए पलकों पे सौ चिराग़,
निखरा कुछ और रंग शब-ए-इन्तज़ार का ।

इस ज़िन्दगी की हम से हक़ीक़त न पूछिए,
इक ज़ब्र जिसको नाम दिया इख़्तियार का ।

ये कौन आ गया मेरी बज़्म-ए-ख़याल में,
पूछा मिज़ाज किसने दिल-ए-सोगवार का ।

देखो फिर आज हो न जाए कहीं ख़ून-ए- ऐतमाद,
देखो ना टूट जाए फ़ुसूँ एतबार का ।