कैसे कह दूँ, इन सालों में / गिरीश चंद्र तिबाडी 'गिर्दा'
कैसे कह दूँ, इन सालों में,
कुछ भी नहीं घटा कुछ नहीं हुआ,
दो बार नाम बदला-अदला,
दो-दो सरकारें बदल गई
और चार मुख्यमंत्री झेले ।
"राजधानी" अब तक लटकी है,
कुछ पता नहीं "दीक्षित" का पर,
मानसिक सुई थी जहाँ रुकी,
गढ़-कुमूँ-पहाड़ी-मैदानी, इत्यादि-आदि,
वो सुई वहीं पर अटकी है ।
वो बाहर से जो हैं सो पर,
भीतरी घाव गहराते हैं,
आँखों से लहू रुलाते हैं ।
वह गन्ने के खेतों वाली,
आँखें जब उठाती हैं,
भीतर तक दहला जातीं हैं ।
सच पूछो- उन भोली-भाली,
आँखों का सपना बिखर गया ।
यह राज्य बेचारा "दिल्ली-देहरा एक्सप्रेस"
बनकर ठहर गया है ।
जिसमें बैठे अधिकांश माफ़िया,
हैं या उनके प्यादे हैं,
बाहर से सब चिकने-चुपड़े,
भीतर नापाक इरादे हैं,
जो कल तक आँखें चुराते थे,
वो बने फिरे शहजादे हैं ।
थोड़ी भी गैरत होती तो,
शर्म से उनको गढ़ जाना था,
बेशर्म वही इतराते हैं ।
सच पूछो तो उत्तराखण्ड का,
सपना चकनाचूर हुआ,
यह लेन-देन, बिक्री-खरीद का,
गहराता नासूर हुआ ।
दिल-धमनी, मन-मस्तिष्क बिके,
जंगल-जल कत्लेआम हुआ,
जो पहले छिट-पुट होता था,
वो सब अब खुलेआम हुआ ।
पर बेशर्मों से कहना क्या?
लेकिन "चुप्पी" भी ठीक नहीं,
कोई तो तोड़ेगा यह ’चुप्पी’
इसलिये तुम्हारे माध्यम से,
धर दिये सामने सही हाल,
उत्तराखण्ड के आठ साल.....!