भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
कोई जाता है, चला जाने दे / ध्रुव गुप्त
Kavita Kosh से
कोई जाता है, चला जाने दे
उसको जाने के सौ बहाने दे
तू सज़ा दे न रिहाई मुझको
दश्त दे और न घर जाने दे
उम्र सबको मनाते बीत गई
एक दफ़ा हमको रूठ जाने दे
पूछता क्या है उदासी का सबब
अपने कंधों पे सर टिकाने दे
कौन कहता है बांट ले सदमे
मेरा क़िस्सा मुझे सुनाने दे
सर टिकाने से नींद आ जाए
ख़ुद को इतना मेरे सिरहाने दे
आपको कुछ न हम बता पाए
आज इतना तो बस बताने दे