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कौआ / अमरेन्द्र
Kavita Kosh से
कौआ हो कक्का काँव-काँव
आरो कहीं नै, तेॅ हमरै कन ठाँव
केना केॅ सूझै छौं, इतनी टा आँख
हमरे चूलोॅ रं छौं तोहरोॅ तेॅ पाँख
लम्बा ठो देहोॅ में चुटकी भर मूड़ी
तिरगैंलेॅ चोंच रहोॅ लुचकै लेॅ पूड़ी
केना देह संभलै छौं, काठी रं पाँव
कौआ हो कक्का काँव-काँव
गगलौ, तेॅ केना केॅ काकी बुलावौ
दूध-भात तोरा लेॅ कैन्हें जुटावौं
हम्में हड़कम्प रहौं देखथैं बस तोरा
घुसकी जाँव माय लुग लै दूध के कटोरा
ताके में रहै छोॅ केना केॅ खाँव
कौआ हो कक्का काँव-काँव ।