भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
कौआ / रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’
Kavita Kosh से
कौआ बहुत सयाना होता ।
कर्कश इसका गाना होता ।।
पेड़ों की डाली पर रहता ।
सर्दी, गर्मी, वर्षा सहता ।।
कीड़े और मकोड़े खाता ।
सूखी रोटी भी खा जाता ।।
सड़े माँस पर यह ललचाता ।
काँव-काँव स्वर में चिल्लाता ।।
साफ़ सफ़ाई करता बेहतर ।
काला-कौआ होता मेहतर ।।