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कौन सी मदिरा / आत्म-रति तेरे लिये / रामस्वरूप ‘सिन्दूर’
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कौन-सी मदिरा पिलाई पीर ने!
आँख मेरी हो गई इतनी रसीली,
बात मेरी हो गई इतनी नशीली,
पास जो आता, न जाना चाहता है
ले लिया जग मोल एक फ़कीर ने!
कौन-सी मदिरा पिलाई पीर ने!
देह दर्पण-सी दमकने लग गई है,
सौ दियों की ज्योति मन में जग गई है,
प्राण पर जो कालिमा वाकी बची थी
पोंछ ली कब, क्या पता, किसी चीर ने!
कौन-सी मदिरा पिलाई पीर ने!
मैं नशे में चूर होकर भी सजग हूँ,
आँसुओं के साथ रह कर भी अलग हूँ,
चेतना सोती नहीं अब रात में भी
कर दिया आज़ाद हर जंजीर ने!
कौन-सी मदिरा पिलाई पीर ने!