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क्या ग़ज़ब है कि चार आँखों में / रजब अली बेग 'सुरूर'

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क्या ग़ज़ब है कि चार आँखों में
दिल चुराता है यार आँखों में

चश्म-ए-कै़फी के सुर्ख़ डोरों से
छा रही है बहार आँखों में

गिर पड़ा तिफ़्ल-ए-अश्क़ ये मचला
मैं ने रोका हज़ार आँखों में

नहीं उठती पलक नज़ाकत से
सुरमा होता है बार आँखों में

इतनी छानी है ख़ाक तेरे लिए
छा रहा है ग़ुबार आँखों में

जब से अपना लक़ब हुआ है ‘सुरूर’
रोज़ ओ शब है ख़ुमार आँखों में