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क्या तुम जानती हो?... / ब्रजेश कृष्ण
Kavita Kosh से
आहत घास का अवसाद
अब नहीं है मेरे पास
आह्लाद में डूबा हुआ वह वृक्ष
क्यों करता है झुक-झुक नमस्कार-
क्या तुम जानती हो?
सुनो
सुनो प्रिया सुनो
उस महाराग को सुनो
जो जन्म लेता है
मेरे भीतर बार-बार
आलोकित है मेरा
विश्वास/आकांक्षा/अतीत
सुबह/दृश्य/चिड़िया/भविष्य और...
और तुम्हारी बासन्ती हँसी
मेरे आसपास क्यों खड़ी है
अब बार-बार
जन्म लेने की इच्छा-
क्या तुम जानती हो?
क्या तुम्हें मालूम है
कि समय की छाती पर
खड़ा हुआ मैं
तुम्हें और संसार को
एक साथ रचता हूँ
और जानता हूँ अपने
होने का सुख
क्या तुम जानती हो
कि अपने यात्रांत के वक़्त
मैं नदी पर
सिर्फ़ तुम्हारा नाम लिखूँगा
क्या तुम जानती हो?...